चन्द्रशेखर अष्टकम
चंद्रशेखर चंद्रशेखर चंद्रशेखर रक्ष माम्।।1।।
चंद्रशेखर चंद्रशेखर चंद्रशेखर पाहि माम्।
कोई भक्त भवानीपति
भालचन्द्र भगवान् शिव
को अपना अनन्यशरण
मानता हुआ, मस्तक
पर जिनके चन्द्रमाविराजमान
है, इस प्रकार
के चन्द्रशेखर भगवान्
शिव को सम्बोधित
करता हुआ कहता
है कि, हे चन्द्रशेखर प्रभो मेरी
रक्षा करो, मेरी
रक्षा करो, मैं
एकमात्रा आपकी शरण
में हूँ। यहाँ
सम्बोधन में बहुत्व
की वीप्सा भक्त
की अनन्यशरणता को
सूचित करती है।
रत्नासानुशरासनं
रजताशिृनिकेतनम्।
सिनिीकृतपगेरमच्युतायनसायकम्।।
क्षिप्रदग्ध्पुरत्रायं
त्रिादिवालयैरभिवन्दितम्।
चंद्रशेखर माश्रये मम क करिष्यति वै यम:।।2।।
हिमालय में जिनका निवास है, जिन्होंने सुमेरु पर्वत को धनुष और वासुकि सर्प की प्रत्यंचा यानि धनुष की डोरी तथा भगवान् विष्णु को वाण बनाकर त्रिपुर का दाह किया है, अतएव देवताओं ने भी जिनकी वन्दना की है, ऐसे चन्द्रशेखर भगवान् शिव का आश्रय लेता हूँ, तब यमराज भी मेरा क्या कर लेगा अर्थात् यह सर्ववदित है कि चन्द्रशेखर भगवान् का आश्रय लेने पर यमराज मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है।
पपादपपुष्पगन्ध्पदाम्बुजद्वयशोभितम्
भाललोचनजातपावकदग्ध्मन्मथ्रपिग्रहम्
भस्मदिग्ध्कलेवरं
भवनाशनं भवमव्ययम्
चंद्रशेखर माश्रये मम क करिष्यति वै यम:।।3।।
मैं उस भगवान्
चन्द्रशेखर का आश्रय
लेता हूँ, जिनके
चरणकमल मन्दारादि पाँच
देवपादपों के पुष्पों
से सुगन्धि्त हैं,
और जिनके भाल
में स्थित तृतीय
लोचनाग्नि के द्वारा
कामदेव का कलेवर
भस्म हो गया था, और
स्वयं जो भस्म रमाये हुए
हैं, इस संसार
को प्रलयकाल में
जो न कर देते हैं,
अथवा जिनकी आराधना
से भक्त को फिर इस
संसार में नहीं
आना पड़ता है,
अर्थात् जो मोक्ष
को प्रदान करते
हैं, स्वयं जो
इस संसार के
कारण भी हैं, यह सब
होते हुए भी जो अक्षय–अमर व शांत
हैं।
मत्तवारणमुख्यचर्मकृत्तोत्तरीयमनोहरम्।
पजासनपालोचन पूजितांघ्रिसरोरुहम्।।
देवसिन्ध्ुतरसीकरसित्तफशुभ्रजटाध्रम्।
चंद्रशेखर माश्रये मम क करिष्यति वै यम:।।4।।
मैं ऐसे भगवान् चन्द्रशेखर का आश्रय लेता हूँ, जिन्होंने गजराज के चर्म का उत्तरीय दुपा बनाया है, इससे भी जो मनोहर ही मालूम पड़ते हैं, और पद्मासन–ब्रा और कमलनमन वष्णु के द्वारा जिनके चरणकमल सर्वदा वन्दनीय हैं, तथा जिनकी जटायें, मन्दाकिनी के तरों के जलकणों से, स्वच्छ दिखाई दे रही है।
यक्षराजसखं भगगाक्षहरं भुजविभूषणम्।
शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम।।
क्ष्वेडनीलगलं
परध्धरिणं मृगधरिणम्।
चंद्रशेखर माश्रये मम क करिष्यति वै यम:।।5।।
मैं ऐसे भगवान्
चन्द्रशेखर का आश्रय
लेता हूँ, जो यक्षराज कुबेर के
सखा मित्रा है,
और इन्द्र के
भगाक्षरुप दोष को
दूर करने वाले
हैं, भुज का भूषण बनाए
हुए हैं, और शैलराजसूता माता पार्वती
से समालिति है
वामभाग जिनका, देवताओं
के कल्याणार्थ समुद्रमन्थन
के अवसर पर जिन्होंने विषपान कर
लिया था, इसी के कारण
जिनका कण्ठ नीलवर्ण
का हो गया है, जो
परशु आदि आयुधें
को धरण करते
हैं तथा मृगलाछनचन्द्र
को भी धरण करते हैं।
कुण्डलीकृतकुण्डलेरकुण्डलं
वृषवाहनम्।
नारदादिमुनीरस्तुतिवैभवं
भुवनेरम्।।
अन्ध्कान्ध्कमाश्रितामरपादपं
शमनान्तकम्।
चंद्रशेखर माश्रये मम क करिष्यति वै यम:।।6।।
मैं ऐसे भगवान्
चन्द्रशेखर का आश्रय
लेता हूँ, जिन्होंने
कुण्डलाकार वासुकि सर्पराज
का कर्णाभरण बनाया
है, और बूढा बैल जिनका
वाहन है, तथा नारदादि मुनीयो के
द्वारा जिनके वैभव
की स्तुति की
गई है, जो सारे भुवनों
के ईश्वर हैं,
अथवा उड़ीसा में
स्थित भुवनेश्वर महादेव
के नाम से विख्यात हैं। अन्ध्कासुर
तथा वृष्णिवंश ने
अमरपादपरूप में जिसका
आश्रय लिया हुआ
है, जो शमन–यमराज के भी
अन्तक हैं।
भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणम्।
दक्षयज्ञविनाशनं
त्रिागुणात्मकं त्रिाविलोचनम्।।
भुत्तिफमुत्तिफपफलप्रदं
सकलाघसनिबर्हणम्।
चंद्रशेखर माश्रये मम क करिष्यति वै यम:।।7।।
मैं ऐसे भगवान्
चन्द्रशेखर का आश्रय
लेता हूँ, जो इस संसार
रूपी रोग के लिए औषध्
हैं, और समस्त
विपत्तियों को दूर
करने वाले हैं,
जिन्होंने दक्षप्रजापति के यज्ञ का विध्वंश
किया है, जो सत्व, रजस
व तमो गणात्मक
है, अर्थात् स्थिति
की अवस्था में
जो सत्वरूप धारण
करते हैं, और उत्पत्ति की अवस्था
में जो रजोगुणरूप
धारण करते हैं,
और संहार की
अवस्था में जो धारण का
रूप धरण करते
हैं। लोकविलक्षण जिनके
तीन लोचन हैं,
जो मुक्ति व
मुक्तिरूप फल को
प्रदान करते हैं,
और भक्तो के
समस्त पापजन्य ताप
को दूर कर देते हैं।
भत्तफवत्सलमखचत
निध्मिक्षयं हरिदम्बरम्।
सर्वभूतपत परात्परमप्रमेयमनुत्तमम्।।
सोमवारिदभूहुताशनसोमपानिलवाकृतिम्।
चंद्रशेखर माश्रये मम क करिष्यति वै यम:।।8।।
मैं ऐसे भगवान्
चन्द्रशेखर का आश्रय
लेता हूँ, जो भक्तवत्सल हैं, और भक्तो से
पूजित हैं, तथा
अक्षयनिधि् के समान
हैं, जो दिगम्बर
हैं, सभी भूतों
प्राणियों के स्वामी
हैं, सबसे श्रेष्ठ,
अप्रमेय जिनके विषय
में किसी रूप
व गुणादि को
लेकर इदमिथ्या निर्णय
नहीं किया जा सकता है,
जिनको प्राप्त कर
फिर आगे किसी
पदार्थ को पाने की इच्छा
ही नहीं होती
है, अर्थात् ये
ही प्राप्तव्य वस्तुओं
में सर्वश्रेष्ठ है,
और जो सूर्य,
चन्द्र, पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु , आकाशादि
आठ रूपों में
विराजमान हैं।
विसृिविधयिनं
पुनरेव पालनतत्परम्।
संहरन्तमपि प्रपमशेषलोकनिवासिनम्।।
कीडयन्तमहखनशं
गणनाथयूथसमन्वितम्।
चंद्रशेखर माश्रये मम क करिष्यति वै यम:।।9।।
मैं ऐसे भगवान्
चन्द्रशेखर का आश्रय
लेता हूँ, जो रजोगुण समन्वित
होकर समस्त संसार
की रचना करते
हैं, और फिर सत्वगुण का आश्रय
लेकर इस संसार
का पालन करते
हैं, तथा अन्त
में तमोगुण का
आश्रय लेकर जो अखिल प्रपच
का संहार करते
हैं, संसार की
स्थिति में जो समस्त प्राणियों
को तत्वप्राणी के
कर्मानुसार नचाते रहते
हैं, तथा जो गणपति के
गणों के मय विराजमान हैं।
मृत्युभीतमृकण्डुसूनुकृतस्तवं
शिवसधिै।
यत्रा कुत्रा च
य: पठेहि तस्य
मृत्युभयं भवेत्।।
पूर्णमायुमरोगितामखिलार्थसम्पदमादरम्।
चंद्रशेखर
एव तस्य ददाति
मुत्तिफमयन्तत:।।10।।
जो भक्त, मृत्यु
से भयभीत र्माकण्डेय
मुनि के द्वारा
रचित इस स्तोत्र
का जहाँ कहीं
भी भगवान् शिव
के मन्दिर में,
या उसके निकट
पाठ करता है,
वह पूर्ण आयु,
आरोग्य, सभी प्रकार
की सम्पत्तियों को,
तथा आदर को प्राप्त करता है।
स्वयं भगवान् चन्द्रशेखर
ही उसको सहज
में मुक्ति प्रदान
करते हैं।